यह पुस्तक भारत के इतिहास में औपनिवेशिक मानसिकता से की गई गड़बड़ियों और उनके कारणों का विवेचन करती है, साथ ही इसमें आधुनिक इतिहासलेखन के तरीकों और उसके स्रोतों की प्रामाणिकता पर भी विचार किया गया है।
₹240 ₹200
भारत का इतिहास आज जो पढ़ाया जाता है, उसमें ढेरों समस्याएं हैं। सबसे पहली समस्या इसकी प्राचीनता की है। कितना प्राचीन है भारत का इतिहास? कितना प्राचीन हो सकता है भारत का इतिहास? यह प्रश्न हमारे सामने इसलिए भी उपस्थित होता है, क्योंकि आज विश्व पर जिन लोगों का प्रभुत्व है, उनकी अपनी इतिहासदृष्टि बहुत ही छोटी और संकुचित है। यूरोपीय और अमेरिका आदि नवयूरोपीय लोगों पर ईसाई कालगणना का ही प्रभाव है, जोकि मात्र छह हजार वर्ष पहले सृष्टि की रचना मानते थे। वहाँ के विज्ञानी भी इस भ्रामक अवधारणा से मुक्त नहीं हैं और इसीलिए वे एक मिथकीय चरित्र ईसा को ही कालगणना के आधार के रूप में स्वीकार करते हैं।
यूरोप के इस अज्ञान के प्रभाव में भारतीय विद्वान भी फँसे। जिन भारतीय विद्वानों ने इसका विरोध किया, वे भी कहीं न कहीं इसकी चपेट में आ गए और इसलिए पुराणों जैसे भारतीय स्रोतों से इतिहास लिखने का दावा करने वाले विद्वानों ने भी मानव सभ्यता का इतिहास कुछेक हजार अथवा कुछेक लाख वर्षों में समेट दिया। किसी भी विद्वान ने शास्त्रसम्मत युगगणना को सही मानने का साहस नहीं दिखाया, बल्कि सभी ने इसके उपाय ढूंढे ताकि यूरोपीय खांचे में भारत के इतिहास को डाला जा सके।
इस भ्रमजाल को काटने और इस भ्रमजाल को मजबूती प्रदान करने वाले आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों की विवेचना किए बिना कालगणना में सुधार करना संभव नहीं है। इस बात को ध्यान में रख कर ही इस पुस्तक का प्रवर्तन किया गया है। इसलिए इसमें पंचांगों पर अधिक चर्चा न करके भूगर्भशास्त्र और विकासवाद जैसे सिद्धांतों की अधिक समालोचना की गई है। साथ ही भारतवर्षसहित विश्व के करोड़ों वर्ष प्राचीन इतिहास का एक दिग्दर्शन कराने का प्रयास भी किया गया है।
There are no reviews yet.